गुरुवार, 24 जुलाई 2014

अष्टावक्र

अष्टावक्र 


अष्टावक्र कहते हैं कि यह आत्मा ही परमात्मा है व् यही दृष्टा है।  इससे भिन्न कोई दृष्टा नहीं है।  यह आत्मा मुक्त ही है , किसी बंधन में बंधी नहीं।  वे आगे जनक से कहते हैं कि  तेरा बंधन यही है कि तूं  आत्मा के अलावा दूसरे को दृष्टा देखता है।  जब दूसरा  मौजूद है तो बंधन हो ही गया।  यदि एक ही है तो कौन किसे बांधे ।  वह मुक्त ही है।  यदि ईश्वर आत्मा से  भिन्न है जो इससे बड़ा है , तभी बंधन की बात पैदा होती है कि आत्मा किसके आधीन है , गुलाम है ,उसकी सेवक है. जब दूसरा है ही नहीं तो बंधन किसका।  वह मुक्त ही है।  अत: आत्मा से भिन्न ईश्वर की सत्ता को मानना भी बंधन है।  ऐसी  आत्मा कभी मुक्त हो ही नहीं सकती।  इस लिए ईश्वर की सत्ता को आत्मा से भिन्न  मानने वाले धर्मों  में मुक्ति की धारणा नहीं पाई जाती।  वे नर्क -स्वर्ग या ईश्वर के साम्राज्य की ही बातें करते हैं।  केवल अद्वैतवादी ही मुक्ति की बात कह सके।  
स्वतंत्र होने  में बड़ा भय है , बड़ी असुरक्षा है. मनुष्य स्वभाव से ही गुलामी खोजता है ,इस लिए उसने ईश्वर  को अपना स्वामी एवं स्वयं को गुलाम मान लिया।  इसी विचारधारा ने द्वैतवादी धर्म को जन्म दिया. उपनिषद कहते हैं 'अयमात्मा ब्रह्म ''तत्वमसि' आदि।  यह अद्वैत की धारणा है।  अष्टावक अद्वैतवादी हैं. इसीलिए वे जनक से कहते हैं कि तू आत्मा है व् वही  आत्मा सबका दृष्टा   परमात्मा है।  इससे भिन्न किसी अन्य आकाश में बैठे हुए परमात्मा को दृष्टा मानना ही तेरा  बंधन है। अज्ञानी ही आत्मा से भिन्न ईश्वर को दृष्टा , कर्म फलप्रदाता एवं कर्ता मानते हैं।  ज्ञानी नहीं मानते