अष्टावक्र
अष्टावक्र कहते हैं कि मोक्ष कोई वस्तु नहीं जिसे प्राप्त किया जाए , न कोई स्थान है जहाँ पहुंचा जाए , न कोई भोग है जिसे भोगा जा सके , न रस है , न इसकी कोई साधना है , न सिद्धि है , न ये स्वर्ग में है , न सिद्ध शीला पर।
विषयों में विरसता ही मोक्ष है।
विषयों में रस आता है तो संसार है ।
जब मन विषयों से विरस हो जाता है तब ' मुक्ति ' है। संसार में रहना , खाना पीना कर्म करना बन्ध नहीं हैं ; इनमें अनासक्त हो जाना ही मुक्ति है। इतना ही मोक्ष विज्ञान का सार है।
सन्यासी बनने से, धूनी रमाने से , संसार को गालियां देने से , शरीर को सताने से , उपवास करने से , भोजन के साथ नीम की चटनी खाने से विषयों के प्रति विरसता नहीं आ सकती। इन सबका मोक्ष से कोई सम्बन्ध नहीं है।
(अष्टावक्र गीता १५/२)