शुक्रवार, 11 मार्च 2011

जीने वालों को मरने की आसानी दो मौला


जीने वालों को मरने की आसानी दो मौला !
          
                एल. आर. गाँधी  


अरुणा ! - अरुणा रामचंद्र शानबाग ... गत ३७ बरस से हस्पताल की मृत्यु शैया पर अपनी ही सहकर्मियों की करुणा का संताप भोग रही है. उसे इच्छा मृत्यु का अधिकार नहीं ... और हमारे देश के  कर्णधार नेताओं के पास  तिल तिल मर रहे मानव के लिए कोई ऐसा क़ानून बनने का वक्त ही कहाँ है. रही बात न्यायालय की वह तो कानून के अमल पर ही अपनी राय दे सकता है.. कानून नहीं घड सकता. सर्वोच्च न्यायालय ने भी अरुणा पर करुणा कर उसे ३७ वर्ष के संत्रास से मुक्त करने में असमर्थता व्यक्त कर दी. हमारे अधिकाँश कानून अंग्रेजों की देन हैं और मेडिकल बिरादरी भी 'ईसाई' धर्म ' से प्रेरित सौगंध से बंधी  है, ईश्वर द्वारा दिए जीवन को छीनने का अधिकार सिर्फ  और सिर्फ 'गाड' को ही है. हमारे संविधान में हमें जीने का अधिकार तो दिया गया है - मगर किस हाल में ? ' अल्लाह ' जाने ! अब अरुणा का जीना यदि जीना है तो 'तिल-तिल मरना किसे कहते हैं.?
क्या अरुणा ३७ बरस ऐसे जी पाती यदि किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल और उसके सहकर्मी उसकी इस कदर देख भाल न करते. अस्पताल और अरुणा की सहकर्मियों को बेशक इसका श्रेय जाता है की इतने लम्बे समय तक बिस्तर पर पड़े रहने पर भी अरुणा को एक भी बेड सोल नहीं हुआ. 
देश में लाखों मरीज़ और वृद्ध लोग अरुणा से भी कई गुना अधिक असह्य पीड़ा और संत्रास में जीने को विवश हैं. मगर सभी अरुणा जैसे भाग्यशाली- अभागे नहीं हैं. वृधावस्था अपने आप में ही जीवन का बहुत कठिन पड़ाव है जब मानव को बहुत से रोगों   और शारीरिक व् मानसिक कष्टों से दो चार होना पड़ता है . निकट भविष्य में हमारा देश विश्व के सर्वाधिक वृधो की शरण स्थली होने जा रहा है ,जिन्हें देखभाल के लिए असंख्य किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पतालों और अरुणा के सहकर्मियों जैसी देखभाल करने वाली नर्सिज़ की  जरुरत पड़ेगी. मगर हमारे सरकारी अस्पतालों से ऐसी देख भाल की आस लगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. यहाँ यदि अरुणा होती तो उसके लिए किसी वीरानी को सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने की नौबत ही न आती- बिन मांगे ही अरुणा को सरकारी डाक्टर और नर्सें अपने 'कुशल' उपचार से मुक्ति प्रदान कर देते. 
सो रही सरकार और कानूनी नूरा कुश्ती में उलझे हमारे माननीय न्यायाधीश अरुणा के संत्रास को क्या जाने.... इसके लिए तो कोई 'बापू ' हृदय महात्मा गाँधी चाहिए.. जो मानव तो क्या एक पशु की पीड़ा से भी अभिभूत हो जाते थे. गाँधी जी के साबरमती आश्रम में उनकी एक गायें का बछड़ा बीमार था और असहनीय दर्द से छटपटा रहा था. गाँधी जी ने जब बछड़े को तडपते देखा तो फ़ौरन ढोर डाक्टर को बुलाया और आदेश दिया कि या तो इसे ठीक करो या फिर इंजेक्शन लगा कर सहज मृत्यु दे दो. अहिंसा के पुजारी से भी एक बेजुबान प्राणी का दर्द सहन नहीं हुआ और दर्द से मुक्ति के लिए 'हिंसा' अर्थात दया मृत्य का विकल्प चुना. 
इसे  मेनका गाँधी जी की  बेजुबान जीवों के प्रति प्रेम की पराकाष्ठ ही कहेंगे कि दया - मृत्यु का जो अधिकार देश में मनुष्य को नहीं प्राप्त वह उन्होंने 'रेबीज़ 'ग्रस्त कुत्तों को दिला दिया.जानवरों के प्रति क्रूरता रोकने के अपने क़ानून में उन्होंने 'रेबीज़' ग्रस्त कुत्ते के लिए सहज मृत्यु का प्रावधान दर्ज किया. 
जब हमारे संविधान में सन्मान पूर्वक जीने का अधिकार है तो गरिमा से मृत्यु लोक की प्राप्ति का क्यूँ नहीं हो सकता. वैदिक काल से हमारे समाज में चतुर्थ अवस्था में वैराग्य आश्रम का प्रावधान है. जब मानव अपने सभी कर्मों से निर्मुक्त हो कर वनों में ऋषि मुनियों से सहज मृत्यु को प्राप्त करने के योगिक-अध्यात्मिक प्राणयाम की शिक्षा ग्रहण कर अपनी इच्छा से अपने जर्जर शरीर से मुक्त हो कर नया शारीर धारण कर लेता ... हमारे पूर्वज तो इस जन्म मरण के गोरख धंधे से निर्मुक्त होने के लिए सारा जीवन 'मुक्ति' की कामना में लगा देते. मुक्ति पर हमारा जन्म सिद्ध अधिकार माना जाता था. तभी तो भीषम पितामह जिन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था - मुक्ति की आकांक्षा हेतु  उतरायण की प्रतीक्षा  में वान शया पर पड़े रहे. महाभारत युद्ध के बाद जब धर्म राज युधिष्ठर वनों में ढूंढते ढूंढते अपने काका श्री विदुर से मिले तो विदुरजी ने एक वाट वृक्ष के नीचे योग मुद्रा में खड़े हो कर अपने प्राण त्याग दिया - युधिष्टर को यका यक महसूस हुआ कि उसके शरीर में एक दैवी शक्ति आ गई है...विदुर जी भी युधिष्टर की भांति  धरमराज का अवतार थे और अपनी ईच्छा से देह त्याग कर अपने मूल अंश में वलीन हो गए.       
काश हमने  अपनी सहज -ईच्छा मृत्यु के  यौगिक ज्ञान  को न बिसराया होता ,  तो आज अपने अंतिम दिनों के संत्रास पर सहज ही विजय पा कर असंख्य कष्टों से मुक्ति पा कर जीवन को एक उत्सव और मृत्यु को महोत्सव के रूप में अंगीकार करने में सक्षम होते. मृत्यु महज़ पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र ग्रंहन करने की ही मात्र एक सहज क्रिया है भगवान श्री कृषण का गीता में मानव को दिया सन्देश भी यही है . 
सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दो मौला. 
जीने वालों को मरने की आसानी दो मौला.